Class 11th Hindi Chapter-8 he bhukh mat machal ,he mere juhi ke phool jaise ishwar | हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Easy Explained Vyakhya
Class 11th Hindi Chapter-8 he bhukh mat machal ,he mere juhi ke phool jaise ishwar | हे भूख! मत मचल, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर Easy Explained Vyakhya
( काव्यांश- 1 )
हे भूख ! मत मचल
प्यास, तड़प मत
हे नींद ! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह ! पाश अपने ढील
लोभ, मत ललचा
हे मद! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
ओ चराचर! मत चूक अवसर
आई हूँ संदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का
सन्दर्भ :-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 1 में संकलित ‘हे भूख! मत मचल’ से ली गई हैं |
प्रसंग :-
अक्क महादेवी शिव की बहुत बड़ी भक्त थी | और वह संसारिकता का त्याग करना चाहती थी |
व्याख्या :-
प्रस्तुत वचन में कवयित्री अपनी समस्त इंद्रियों से नियंत्रण में रहने का आग्रह कर रही है ।
वह भूख से कहती है कि तू मचलकर मनुष्य को मत सता । हे प्यास ! अर्थात् सांसारिक तृष्णा तू मनुष्य को अपनी पीड़ा से मत तड़पा ।
हे नींद ! अर्थात् आलस्य तू मनुष्य को मत सता क्योंकि तेरे कारण व्यक्ति ईश्वर भक्ति को भूल जाता है ।
इसके आगे , कवयित्री मन के पाँच विकारों को संबोधित करते हुए कहती है कि हे क्रोध !
तू अपनी उथल - पुथल मत मचा, क्योंकि तेरे कारण व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है ।
हे मोह ! तू अपने बंधन ढीले कर दे, क्योंकि तेरे पाश अर्थात् बंधन में बँधा व्यक्ति सदैव सांसारिकता में उलझा रहता है ।
प्र हे लोभ ! तू मनुष्य को भौतिक सुख - सुविधाओं की ओर मत ललचा ।
क्योंकि तेरे वशीभूत होकर व्यक्ति सदैव अपने अहित को निमंत्रण देता है ।
हे मद ! अर्थात् अहंकार तू अपने नशे में मनुष्य को मदहोश न कर, क्योंकि तू मनुष्य को उन्नति से पतन की ओर ले जाता है ।
हे ईर्ष्या ! तू मनुष्य को मत जला, क्योंकि ईर्ष्या की जलन से जला हुआ व्यक्ति उचित - अनुचित का विचार नहीं कर पाता ।
कवयित्री का आशय यह है कि इन के वश में आकर व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर अपना नियंत्रण खो देता है ।
ऐसी स्थिति में उसे अच्छे - बुरे तक का भान नहीं रहता, तो उसे ईश्वर का ध्यान कैसे रह पाएगा ? इसलिए तुम मनुष्यों को सताना छोड़ दो ।
वह सृष्टि के प्रत्येक जड़ एवं चेतन पदार्थ को संबोधित करते हुए कहती है
कि मैं भगवान चन्नमल्लिकार्जुन का संदेश लेकर आई हूँ, इसलिए इसे ग्रहण करके अपना जीवन सँवारो ।
( काव्यांश- 2 )
हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख
कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे ।
सन्दर्भ :-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 1 में संकलित ‘हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर से ली गई हैं
प्रसंग :-
अक्क महादेवी शिव की बहुत बड़ी भक्त थी | और वह संसारिकता का त्याग करना चाहती थी |
व्याख्या :-
कवयित्री अपने आराध्य ईश्वर को पुकारती हुई कहती है कि जूही के फूल के समान कोमल, और परोपकारी ईश्वर, कुछ ऐसा करो कि मैं अपना ' अहंकार ' त्याग दूँ ।
तुम मुझसे नीच - से - नीच कार्य करवाओ, जिससे मेरे भीतर का ' मैं ' अर्थात् अहंकार न रहे और तेरी भक्ति का मार्ग सुगम हो जाए ।
तुम कुछ ऐसा करो कि मैं अपना घर पूरी तरह से भूल जाऊँ , जिससे मेरे पास , तुम्हारी शरण में आने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष न बचे ।
तुम मेरे लिए ऐसी परिस्थितियों का सृजन करो, जिससे मुझे भीख अर्थात् मनुष्य को दूसरों के सामने झोली फैलानी पड़े और इस पर भी मुझे भीख न मिले ।
यदि कोई हाथ भीख देने के लिए उठे, तो वह भीख मेरी झोली में न आकर नीचे गिर जाए ।
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