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Charlie Chaplin Yani Hum Sab Class 12 : चार्ली चैप्लिन | Summary Of Charlie Chaplin Yani Hum Sab Class 12 HIndi Aaroh 2 Chapter 15 , चार्ली चैप्लिन यानी हम सब कक्षा 12 का सारांश हिन्दी आरोह 2

 Charlie Chaplin Yani Hum Sab Class 12 : चार्ली चैप्लिन | Summary Of Charlie Chaplin Yani Hum Sab Class 12 HIndi Aaroh 2 Chapter 15 , चार्ली चैप्लिन यानी हम सब कक्षा 12 का सारांश हिन्दी आरोह 2 




Charlie Chaplin Yani Hum Sab Class 12 Summary 

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब का सारांश 

“चार्ली चैप्लिन यानी हम सब” पाठ के लेखक विष्णु खरे जी हैं। चार्ली चैप्लिन का जन्म 16 अप्रैल 1889 (लन्दन , इग्लैंड) में हुआ था और उनकी मृत्यु  25 दिसम्बर 1977 (स्विटजरलैंड) में हुई थी। चार्ली चैप्लिन की जन्म शताब्दी सन 1989 में मनाई गई थी।

पाठ की शुरुआत करते हुए लेखक कहते हैं कि यदि यह वर्ष चार्ली चैप्लिन की जन्म शताब्दी (1989) का ना होता तो भी , यह चैप्लिन के जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष होता क्योंकि आज उनकी पहली फिल्म “मेकिंग ए लिविंग” के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यानि 75 वर्षों से चार्ली चैप्लिन की कला दुनिया के सामने है और 5 पीढ़ियों का मनोरंजन कर चुकी है।

समय , भूगोल , संस्कृति की सीमाओं से खिलवाड़ करता हुआ चार्ली आज भारत के लाखों बच्चों को हंसा रहा हैं। जो उसे जीवन पर्यन्त याद रखेंगे। यानि चार्ली की फिल्में उस समय लोगों में जितनी लोकप्रिय थी आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं। और आने वाली पीढ़ियों भी इसी जूनून से उनकी फिल्में देखेंगी।और यह किसी एक देश विशेष का नहीं वरन पूरे विश्व की सभी संस्कृतियों के लोगों का मनोरंजन करती हैं।

पश्चिमी देशों में जैसे-जैसे टेलीविजन और वीडियो का प्रसार हो रहा है। एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग नए सिरे से चार्ली को “घड़ी सुधारते” या “जूता खाने की कोशिश” करते हुए देख रहा है। यानी नई पीढ़ी भी चार्ली की फिल्मों को बहुत पसंद करती हैं।

चार्ली की फिल्मों बुद्धि के बजाय भावनाओं पर टिकी हुई हैं । उनकी फिल्मों में भाषा का प्रयोग बहुत कम होता था और वो अपने चेहरे के हावभावों के द्वारा ही अपनी भावनाओं को सामने लाते थे। उनके भीतर मानवता विद्ध्यमान थी जो उनकी फिल्मों में साफ झलकती हैं।

इसीलिए चार्ली की फिल्मों का आनंद प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति लेता था फिर चाहे वो पागलखने का मरीज हो या महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन। उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिये फिल्म कला को लोकतान्त्रिक बनाया और वर्ग , वर्ण व्यवस्था को भी तोडा।

चार्ली चैप्लिन ने अपने जीवन में बहुत अधिक संघर्ष देखे।उनकी मां एक तलाकशुदा महिला थी और स्टेज के दूसरे दर्जे की अभिनेत्री थी जो बाद में मानसिक रूप से रोगी हो गई थी। भयानक गरीबी और माँ के पागलपन से संधर्ष करना उनके लिए आसान नहीं था मगर उन्होनें परिस्थितियों से कभी हार नहीं  मानी।

चार्ली की नानी खानाबदोशों के परिवार से थी मगर उनके पिता यहूदीवंशी थे। इसी कारण चार्ली का चरित्र “बहारी” व “घुमन्तु” हैं ।

चार्ली चैप्लिन ने कभी भी मध्यमवर्गीय , उच्च वर्गीय जीवन मूल्यों को नहीं अपनाया। उनकी फिल्मों में भी उनकी छवि खानाबदोश , आवारा टाइप की हैं । शायद इसी कारण वो इतने लोकप्रिय हुए। और अपने आप को सामान्य वर्ग से जोड़ सके।

लेखक कहते हैं कि उसकी फिल्मों के बारे में लिखना या उनकी समीक्षा करना , अभी तक संभव नहीं हो पाया हैं। क्योंकि चार्ली पर कुछ नया लिखना कठिन होता जा रहा हैं। इसीलिए लेखक कहते है कि सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते बल्कि कला अपने सिद्धांत आप बनाती हैं ।

चार्ली चैप्लिन ने अपनी फिल्मों में सामान्य जीवन की वास्तविकता को बड़ी ही खूबसूरती के साथ दिखाया हैं। जो हमें अपने आसपास की घटित घटनाओं के जैसी लगती हैं।और चार्ली का चरित्र भी बड़ा जाना पहचाना सा लगता है।

बचपन की दो घटनाओं ने चार्ली के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला जिन्हें उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा हैं । एक बार जब वो बीमार हो गये थे तब उनकी मां ने उनको ईसा मसीह की कहानी सुनायी। जीसस के सूली पर चढ़ने का प्रसंग आते ही दोनों मां-बेटे रोने लगे।

और दूसरे प्रसंग में एक बार उन्होंने देखा कि उनके घर के सामने के कसाईघर से एक भेड़ भाग जाती है । भेड़ को पकड़ने के लिए कसाई उसके पीछे गिरते-पड़ते दौड़ता है और जैसे-तैसे भेड़ को पकड़ लेता है।जिसे देख कर लोग हँसते हैं। बाद में चार्ली सोचते है कि कसाईघर में उसके साथ क्या होगा। शायद यही दो घटनायें चार्ली चैप्लिन की भावी फिल्मों के आधार (यानि हास्य के साथ करुणा) बने।

यहां पर लेखक कहते हैं कि भारत के कला और सौंदर्यशास्त्रों में कई रसों का वर्णन किया गया है। कुछ जगहों पर कुछ रसों का सुंदर मेल भी दिखता हैं। मगर करुणा का हास्य में बदल जाना। यह भारतीय परंपरा में कही नहीं मिलता है।

रामायण और महाभारत में भी जो हास्य है , वह दूसरों पर है स्वयं पर नही। संस्कृत नाटकों में बिदूषक के मनोरंजन में भी करुणा व हास्य का सामंजस्य नहीं दिखता हैं।

बाबजूद इसके भारत में चार्ली चैप्लिन की फिल्मों को हर वर्ग के लोगों द्वारा काफी पसंद किया जाता है। यहां तक कि गांधी और नेहरू भी चार्ली का सानिध्य चाहते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों में करुणा और हास्य को एक साथ प्रस्तुत किया । इस तरह का प्रयास इससे पहले कभी नहीं हुआ।

लेखक कहते हैं कि किसी भी समाज में गिने चुने लोगों को ही अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार कह कर ताना मारा जाता हैं।यानी हमारे समाज में नायक बहुत कम हैं। लेकिन चार्ली और जॉनी वाकर किसी भी व्यक्ति को कभी भी कह दिया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हर व्यक्ति कभी न कभी दूसरे को विदूषक समझता है और उस पर हंसता है।

भारत में राज कपूर को चार्ली चैप्लिन का भारतीय अवतार माना जाता हैं यानि भारत के चार्ली चैप्लिन राजकपूर माने जाते हैं। भारतीय फिल्मों में कभी भी करुणा और हास्य को एक साथ मिलाकर नहीं दिखाया गया।

यहां तक कि राजकपूर की फिल्म “आवारा” और “श्री 420” से पहले नायक के अपने आप पर हंसने व नायक पर किसी और के हंसने की परम्परा नहीं थी। राज कपूर ने यह परम्परा शुरू की। बाद में उन्होंने  “मेरा नाम जोकर” में भी इसी तरह का किरदार निभाया था।

यह एक साहसिक प्रयोग था जिसमें राज कपूर सफल भी हुए। उन्होंने चार्ली का भारतीयकरण किया जिसे लोगों ने बहुत अधिक पसंद भी किया। हालाँकि यह भारतीय साहित्य शास्त्र और भारतीय मानसिकता के बिल्कुल विरुद्ध था।

इसके बाद दिलीप कुमार की फिल्म “गोपी , बाबुल , शबनम , कोहिनूर और लीडर” और देवानंद के “फंटूश , तीन देवियां , नौ दो ग्यारह ” आदि में इसी तरह के प्रयोग किये जो काफी सफल रहे। इसके बाद भारतीय फिल्म जगत में एक नये दौर की शुरुआत हुई।

लेखक यहां पर कहते हैं कि चार्ली का चिर युवा होना या बच्चों जैसा दिखना , उनकी एक विशेषता तो है ही। मगर उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते हैं।

उनके आसपास जो भी चीजें , अड़ंगे , खलनायक , दुष्ट औरत आदि रहते हैं। वो एक सतत विदेशी या परदेश बन जाते है और चैप्लिन “हम” बन जाते हैं। चार्ली के सारे संकटों से यही लगता है कि यह “मैं” भी हो सकता हूं लेकिन “मैं” से ज्यादा चार्ली हमें “हम” लगते हैं। चार्ली हमारे जैसे हैं या हम चार्ली चैप्लिन जैसे हैं। यानि हर इंसान को अपने भीतर चार्ली चैप्लिन दिखते हैं।

हमारे भारतीय समाज में होली के अवसर पर ही लोग अपने आप पर हंसते हैं या जानते बुझते हुए अपने आप को हास्यास्पद स्थित में डालते हैं।

चार्ली चैप्लिन “अंग्रेजों जैसे” व्यक्तियों पर हंसने का मौका देता हैं। इसीलिए उनका भारत में महत्व बढ़ जाता हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हंसते है जब वह स्वयं को आत्मविश्वास से लबरेज , सफलता , सभ्यता , संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति , दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली व श्रेष्ठ समझते है।तभी कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य हो जाती हैं। जो लोगों को हंसने का मौका देती हैं।

लेखक यहां पर कहते हैं कि हम भी अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में चार्ली जैसे ही होते हैं जिनके रोमांस हमेशा पंचर होते हैं। महानतम क्षणों में कोई हमें चिढ़ा कर या लात मार कर भाग सकता है। और कभी-कभी जब हम लाचार होते है तो भी जीत जाते हैं।

और अंत में लेखक कहते हैं कि मूलत: हम सब चार्ली ही हैं क्योंकि हम सब सुपरमैन नहीं हो सकते हैं। सत्ता , शक्ति , बुद्धिमत्ता , प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों पर जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली चार्ली हो जाता है।

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