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Pahalwan Ki Dholak Saransh Class 12 Summary : पहलवान की | Summary Of Pahalwan Ki Dholak Class 12 Hindi Aaroh 2 , पहलवान की ढोलक का सारांश कक्षा 12 हिन्दी आरोह 2

 Pahalwan Ki Dholak Saransh Class 12 Summary : पहलवान की | Summary Of Pahalwan Ki Dholak Class 12 Hindi Aaroh 2 , पहलवान की ढोलक का सारांश कक्षा 12 हिन्दी आरोह 2




Pahalwan Ki Dholak Class 12

पहलवान की ढोलक का सारांश

“पहलवान की ढोलक” कहानी के लेखक फणीश्वर नाथ रेणु जी हैं।

जाड़ों के मौसम में श्यामनगर के समीप के एक गाँव में महामारी फैली हुई थी। गांव के अधिकतर लोग मलेरिया और हैजे से पीड़ित थे। जाडे के दिन थे और रातें एकदम काली अंधेरी व डरावनी।

कभी कभी उस काली अंधेरी रात में भगवान को पुकारता हुआ कोई कमजोर स्वर  , तो कभी किसी बच्चे के द्वारा अपनी माँ को पुकारने की आवाज सुनाई देती थी।

लेखक आगे कहते हैं कि रात की खामोशी में सिर्फ सियारों और उल्लूओं की आवाज ही सुनाई देती थी। कुत्तों में परिस्थिति को समझने की विशेष बुद्धि होती है । इसीलिए वो रात होते ही रोने लगते थे। और गांव के दुख में अपना स्वर मिलाने लगते थे।

रात की इस खमोशी को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही तोड़ती थी । पहलवान की ढोलक संध्याकाल से लेकर प्रात:काल तक लगातार एक ही गति से बजती रहती थी और मौत को चुनौती देती रहती थी। ढोलक की आवाज निराश , हताश , कमजोर और अपनों को खो चुके लोगों में संजीवनी भरने का काम करती थी। और इस ढोलक को लुट्टन सिंह पहलवान बजाया करता था ।

इसके बाद लेखक लुट्टन सिंह के बचपन के बारे में बताते हुए कहते हैं कि लुट्टन सिंह पहलवान अपने बारे में कहता था कि “होल इंडिया” उसे जानता है लेकिन लेखक के अनुसार उसका “होल इंडिया” उसके जिले तक ही सीमित होगा क्योंकि वहाँ उसे अधिकतर लोग जानते थे।

लुट्टन सिंह के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो चुका था। और उसकी शादी भी 9 साल की उम्र में हो गयी थी। उसकी विधवा सास ने ही उसको पाल पोस कर बड़ा किया। वह गाय चराता , खूब दूध-दही खाता और कसरत करता था।

मगर उसे यह देख कर अच्छा नहीं लगता था कि गांव के लोग उसकी सास को परेशान करते हैं। इसीलिए उसने गांव के लोगों से बदला लेने के लिए पहलवान बनने की ठानी। और युवावस्था तक आते आते वह अच्छा खासा पहलवान बन गया था। उसने कुश्ती के दाँव पेंच भी सीख लिए थे।

एक बार लुट्टन सिंह श्याम नगर मेले में दंगल देखने गया। पहलवानों की कुश्ती देखकर उसने बिना सोचे समझे वहां चाँद सिंह नाम के एक पहलवान को चुनौती दे दी। चाँद सिंह पहलवान अपने गुरु बादल सिंह के साथ पंजाब से वहां आया था और उसे “शेर के बच्चे” का टाइटल भी मिला था।

श्याम नगर के राजा चाँद सिंह को अपने यहां राज पहलवान रखने की भी सोच रहे थे। लुट्टन सिंह की चुनौती चाँद सिंह ने स्वीकार कर ली लेकिन जब लुट्टन सिंह , चाँद सिंह से भिड़ा तो उसने पहली बार में ही उसे जमीन में पटक दिया।

लेकिन लुट्टन सिंह उठ खड़ा हुआ और दुबारा दंगल शुरू हुआ। इस बार लुट्टन सिंह ने सभी की उम्मीदों के विपरीत चांद सिंह को चित कर दिया। उसने इस पूरी कुश्ती में ढोल को अपना गुरु मानते हुए उसके स्वरों के हिसाब से ही दांव-पेंच लगाया और कुश्ती जीत ली । राजा ने प्रसन्न होकर उसे राज पहलवान बना दिया। 

राजा का संरक्षण मिलने के बाद लुट्टन सिंह को अच्छा खाना व कसरत करने की सभी सुविधाएं मिलने लगी । बाद में उसने काले खाँ समेत कई नामी-गिरामी पहलवानों को हराया। इसीलिए उसके ऊपर हमेशा राजा की विशेष कृपा दृष्टि बनी रहती थी। धीरे-धीरे राजा उसे किसी से लड़ने भी नहीं देते थे। अब वह राज दरबार का सिर्फ एक दर्शनीय जीव बन कर रह गया था।

लुट्टन सिंह ने अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बना दिया। वह ढोलक को ही अपना गुरु मनाता था इसीलिए अपने दोनों बेटों को भी ढोलक की आवाज में पूरा ध्यान देने को कहता था।

लुट्टन सिंह की जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी। लेकिन 15 साल बाद अचानक एक दिन राजा की मृत्यु हो गई जिसके बाद उसकी जिंदगी में एक जबरदस्त मोड़ आया। राजा की मृत्यु के बाद उनके बेटे (राजकुमार) ने राज्य संभाल लिया। नये राजा को कुश्ती में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी। इसीलिए उसने लुट्टन सिंह को राजदरबार से निकाल दिया।

लुट्टन सिंह अपने दोनों बेटों के साथ गांव वापस आ गया। गाँव वालों ने गांव के एक छोर पर उसकी एक छोटी सी झोपड़ी बना दी और उसके खाने-पीने का इंतजाम भी कर दिया। बदले में वह गांव के नौजवानों को पहलवानी सिखाने लगा।

लेकिन यह भी बहुत दिन नही चला। इसीलिए अब वह अपनी ढोलक की थाप पर अपने दोनों बेटों को ही कुश्ती सिखाया करता था। उसके बेटे दिन भर मजदूरी करते और शाम को कुश्ती के दांव पेंच सीखते थे।

एक बार गांव में सूखा पड़ गया। बारिश ने होने के कारण चारों ओर हाहाकार मच गया। ऊपर से गांव के लोगों को हैजे और मलेरिया ने जकड़ लिया।  भुखमरी , गरीबी और सही उपचार न मिलने के कारण लोग रोज मर रहे थे। घर के घर खाली हो रहे थे और लोगों का मनोबल दिन प्रतिदिन टूटता जा रहा था।

ऐसे में पहलवान की ढोलक की आवाज ही लोगों को उनके जिंदा होने का एहसास दिलाती थी। वह उनके लिए संजीवनी का काम करती थी। पहलवान के दोनों बेटे भी बीमारी की चपेट में आकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुके थे।

मरने से पहले वो अपने पिता से ढोलक बजाने को कहते हैं। लुट्टन सिंह रात भर ढोलक बजाता है और सुबह जाकर देखता है तो वो दोनों पेट के बल मरे पड़े थे। वह अपने दोनों बेटों को कंधे पर ले जाकर नदी में बहा देता हैं।

इसके बाद लुट्टन सिंह ने उसी रात को फिर से ढोलक बजाई। लोगों ने उसकी हिम्मत की दाद दी। इसके चार-पांच दिन बाद एक रात ढोलक की आवाज सुनाई नहीं दी। पहलवान के कुछ शिष्यों ने सुबह जाकर देखा तो उसकी लाश पड़ी थी। पहलवान ने बहुत कोशिश की लेकिन वह हार गया और मौत जीत गई।

शव यात्रा के वक्त आंसू पूछते हुए उसके एक शिष्य ने कहा कि “गुरुजी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊं तो मुझे पीठ के बल नहीं बल्कि पेट के बल चिता पर लिटाना और चिता जलाते वक्त ढोलक अवश्य बजाना”।  वह आगे नहीं बोल पाया।

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