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Kale Megha Pani De Class 12 Summary : काले मेघा| Summary Of Kale Megha Pani De Class 12 Hindi Aaroh 2 , काले मेघा पानी दे कक्षा 12 का सारांश हिन्दी आरोह 2

 Kale Megha Pani De Class 12 Summary : काले मेघा| Summary Of Kale Megha Pani De Class 12 Hindi Aaroh 2 , काले मेघा पानी दे कक्षा 12 का सारांश हिन्दी आरोह 2 



Kale Megha Pani De Class 12 Summary

काले मेघा पानी दे का सारांश 

“काले मेघा पानी दे” एक संस्मरण हैं जिसके लेखक धर्मवीर भारती जी हैं।

संस्मरण की शरुवात करते हुए धर्मवीर भारती जी कहते हैं कि गाँव में बच्चों की एक मंडली हुआ करती थी जिसके सदस्य 10-12 से लेकर 16-18 साल के लड़के होते थे। ये बच्चे अपने बदन पर सिर्फ एक लंगोटी या जांगिया पहने रहते थे।

जब गर्मी बहुत अधिक बढ़ जाती थी और बादल दूर-दूर तक आसमान में कही नहीं दिखाई देते थे। तब ये बच्चे एक जगह इकट्ठा होकर “बोल गंगा मैया की जय…..काले मेधा पानी दे , गगरी फूटी …. बैल प्यासा , पानी दे गुड़धानी दे  ” लोकगीत गाते हुए गाँव की गलियों में धूमा करते थे। 

इस लोकगीत को सुनकर गांव के सभी लोग सावधान हो जाते थे और महिलाएं व लड़कियों घरों की खिड़कियों से झांकने लगती थी। यह मंडली “पानी दे मैया , इंद्र सेना आयी हैं….” कहते हुए अचानक गली के किसी मकान के सामने रुक जाती  , तो उस घर के लोग बाल्टी भर पानी उस मंडली के ऊपर फेंका देते थे। 

कुछ लोग जो इस मंडली को पसंद नही करते थे वो इसे “मेंढक मंडली” कहा करते थे और जो लोग यह मानते थे कि इस मंडली पर पानी फेंकने से बारिश हो जाएगी। वो इस मंडली को “इंद्र सेना” कहा करते थे।

जब जेठ बीतकर , आषाढ़ भी आधा गुजर जाता मगर फिर भी बारिश नहीं होती। गांवों व शहरों में सूखे के से हालत हो जाते।  मिट्टी सूख कर जमीन फटने लगती है। इंसान व जानवर पानी के बैगर तड़प-तड़प कर मरने लगते फिर भी आसमान में बादलों का कही नामोनिशान दिखाई नहीं देता।

ऐसे मुश्किल हालातों में लोग अपने क्षेत्रों में प्रचलित लोक विश्वासों जैसे पूजा पाठ , हवन यझ आदि के सहारे भगवान इंद्र से प्रार्थना कर वर्षा की उम्मीद लगाते थे। जब सब कुछ करके हार जाते हैं तो फिर इंदर सेना को बुलाया जाता था।

इंद्र सेना , भगवान इंद्र से वर्षा की प्रार्थना करती हुई , गीत गाती हुई पूरे गांव में निकलती थी। उस समय लेखक को भी पानी मिलने की आशा में यह सब कुछ ठीक लगता था।

परंतु एक बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है। जानवर और इंसान , दोनों ही पानी के लिए तड़प रहे हैं तो फिर इतनी मुश्किल से इकट्ठा किया हुआ पानी लोग इंद्रसेना पर डाल कर उसे क्यों बर्बाद करते हैं। उनको लगता था कि यह तो सरासर अंधविश्वास हैं जो देश को न जाने कितना नुकसान पहुंचा रहा हैं। 

फिर लेखक कहते हैं कि यह इंद्र सेना नही बल्कि पाखंड हैं। अगर यह इंद्र सेना , सच में इंद्र महाराज से पानी दिलवा सकती तो , क्या वो पहले अपने लिए पानी नहीं मांग लेती । इस तरह के अंधविश्वास के कारण ही तो हम अंग्रेजों से पिछड़ गए हैं और उनके गुलाम हो गये।

लेखक आगे अपने बारे में बताते हैं कि वो भी तब लगभग इंद्र सेना में शामिल बच्चों की ही उम्र के थे । उनके अंदर बचपन से ही आर्य समाजी संस्कार पड़े थे। वो उस समय “कुमार सुधार सभा” के उपमंत्री भी थे। जिसका कार्य समाज में सुधार करना व अंधविश्वास को दूर करना था। 

हालाँकि लेखक हमेशा अपनी वैज्ञानिक सोच के आधार पर इन अंधविश्वासों के तर्क ढूंढते रहते थे। फिर भी वो इस बात को स्वीकारते हैं कि उन्होंने भी अपनी वैज्ञानिक सोच को अलग रखते हुए ऐसे कई रीति-रिवाजों को अपनाया जो उन्हें उनकी जीजी ने अपनाने को कहा था। उन्होंने वो सब बातें मानी जो उन्हें उनकी जीजी ने स्नेह बस उनसे करने के लिए कहा था ।

लेखक कहते हैं कि उन्हें सबसे अधिक प्यार उनकी जीजी से ही मिला। वो रिश्ते में लेखक की कोई नहीं थी। वो उम्र में उनकी मां से भी बड़ी थी लेकिन वो अपने परिवार वालों से पहले लेखक को ही पूजा-पाठ , तीज त्यौहार आदि में बुलाया करती थी और उनके हाथों से ही सारा काम करवाया करती थी। ताकि लेखक को उसका पुण्य मिल सके। और लेखक उनकी हर बार मानते थे।

लेकिन इस बार जब जीजी ने लेखक से इंद्रसेना पर पानी फेंकने को कहा तो , लेखक ने साफ मना कर दिया। लेकिन जीजी ने खुद ही बाल्टी भर पानी उनके ऊपर फेंक दिया जिसे देखकर लेखक नाराज हो गए।

लेखक को मनाते हुए जीजी ने उन्हें बड़े प्यार से समझाया कि यह पानी की बर्बादी नहीं है। यह तो पानी का अर्क है जो हम इंद्रसेना के माध्यम से इंद्रदेव पर चढ़ाते हैं। फिर उन्होंने कहा जो चीज इंसान पाना चाहता है उसे पहले देगा नहीं तो पाएगा कैसे। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊंचा स्थान दिया है।

इस पर लेखक कहते हैं कि ऋषि-मुनियों को क्यों बदनाम करती हो जीजी।  जब आदमी पानी की एक-एक बूँद को तरसे , तब पानी को इस तरह बहाओगी क्या । 

इस पर जीजी थोड़ी देर चुप रही ।  फिर उन्होंने कहा कि देखो भैय्या बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर तुम्हारे पास करोड़ो रुपए हैं और तुमने उसमें से कुछ रूपये दान कर दिए तो , वो दान नहीं हैं।

दान तो वह है जब किसी के पास कोई चीज कम है। फिर भी वह उस वस्तु का दान कर रहा है। तो उसको उस दान का फल मिलता है। लेखक उनकी बात काटते हुए कहते हैं कि यह सब ढकोसला है और मैं इस बात को नहीं मानता।

जीजी ने फिर लेखक को समझाते हुए कहा कि तू पढ़ा-लिखा है मगर मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। लेकिन मैं इस बात को अनुभव से जानती हूँ कि जब किसान 30 – 40 मन गेहूँ उगना चाहता हैं तो वह 5-6 शेर अच्छा गेहूं जमीन में क्यारियों बनाकर फेंक देता है।और वह इस तरह गेहूँ की बुवाई करता है।

बस हम भी तो पानी की बुवाई ही कर रहे हैं । जब हम यह पानी गली में बोयेंगे , तब तो शहर , कस्बे और गाँव में पानी वाले बादलों की फसल आएगी।  हम बीज बनाकर पानी देते हैं फिर काले मेघा से पानी मांगते हैं।

जीजी लेखक को आगे समझाते हुए कहती हैं कि सब ऋषि मुनि कह गए , पहले खुद दो , तब देवता तुम्हें चौगुना , आठगुना कर लौटाऐंगे। यह तो हर आदमी का आचरण हैं जिससे सबका आचरण बनता हैं। “यथा राजा तथा प्रजा” , सिर्फ यही सही नहीं है। सच यह भी हैं “यथा प्रजा तथा राजा” अर्थात जैसी प्रजा होगी वैसा ही राजा का व्यवहार भी होगा। और यही बात गांधीजी भी कहते थे। 

लेखक ने जब यह संस्मरण लिखा था तब देश की आजादी के 50 साल पूरे हो रहे थे। लेकिन आज भी लेखक के द्वारा उठाए हुए प्रश्न उतने ही प्रासंगिक है जितने तब थे। उन्होंने कहा कि हम अपने देश के लिए करते क्या हैं ?

मांगें तो हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी है पर त्याग का कहीं नामोनिशान नहीं है। अपना स्वार्थ एकमात्र लक्ष्य रह गया। हम चटकारे लेकर लोगों की भ्रष्टाचार की बातें तो खूब करते हैं लेकिन क्या हम खुद उसी भ्रष्टाचार के अंग नहीं है।

लेखक कहते हैं कि “बादल आते हैं पानी बरसता है लेकिन बैल प्यासे के प्यासे और गगरी फूटी की फूटी रहती हैं। आखिर यह स्थिति कब बदलेगी ” । लेखक की यह पंक्ति हमारी समाजिक व्यवस्था पर एक व्यंग्य है।

क्योंकि हमारे देश में हर वर्ष गरीब , बेबस , बेसहारा , अनाथ लोगो के लिए हजारों योजनाएं बनाती हैं। लेकिन इन योजनाओं का लाभ उस वर्ग को नहीं मिलता हैं। ये सभी योजनाओं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। उच्च अधिकारी वर्ग से लेकर निम्न स्तर तक के सभी सरकारी कर्मचारियों की जेबों भर जाती हैं मगर जिनके लिए योजनाएं बनाई जाती हैं उनको उसका लाभ नहीं मिलता हैं ।

विकास की बातें तो बहुत की जाती हैं मगर यह विकास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहता हैं। इसीलिए लेखक कहते हैं कि “बरसात होने के बाद भी बैल प्यासा रह जाता हैं और गगरी फूट जाती हैं ।  



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