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प्रश्न बैंक 2023 हिन्दी सॉल्यूशन
इकाई-1 Part 5
आरोह भाग-2, काव्य खंड
(03 अंक)
निम्नलिखित पद्यांशों की संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या कर लिखिए
1. 'मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ।
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि हरिवंशराय बच्चन की रचना ‘आत्मपरिचय’ से लिया गया है।
प्रसंग- कवि बता रहा है कि वह जीवन के उत्तरदायित्वों को निभाते हुए, सभी के प्रति प्यार और कृतज्ञता व्यक्त करता है। वह जग सुहाती बातें न करके अपने मन के गीत गाया करता है।
व्याख्या-कवि बच्चन कहते हैं कि मेरे ऊपर अनेक सांसारिक उत्तरदायित्व हैं, जिनके कारण मेरा जीवन भार-स्वरूप हो गया है परन्तु मेरे मन में सभी के प्रति प्रेम तथा स्नेह के भाव विद्यमान हैं। दुनियादारी में फंसकर मैं अपने प्रेम-भाव की उपेक्षा नहीं करना। चाहता। किसी ने अपने प्रेमपूर्ण स्पर्श से मेरे जीवनरूपी सितार को संगीतमय कर दिया है। उस मधुर प्रेम-राग के सहारे मैं इस जीवन को बिता रहा हूँ।
मैं सदैव प्रेम की मदिरा में मस्त रहता हूँ। मैं इस संसार की अन्य अनावश्यक बातों की चिन्ता कभी नहीं करता। यह संसार उनकी ही प्रशंसा करता है, जो उसकी हाँ-में-हाँ मिलाया करते हैं, अर्थात् वही कवि संसार में प्रशंसनीय होते हैं जो दूसरों को खुश करने वाली कविताएँ लिखते हैं। परन्तु मैं अपने मन को सुख देने वाले विचारों को ही अपनी कविताओं में प्रकट करता हूँ।
विशेष-
(i) कवि को अपने सम्बन्धियों, मित्रों, प्रियजनों से गहरा स्नेह है। यह प्रेम उसके मन पर मदिरा के समान प्रभाव डालता। है और उसे मस्त बना देता है।
(ii) केवि प्रेम को जीवन के लिए आवश्यक मानता है। किसी की निन्दा-स्तुति का उसे कोई भय नहीं है।
(iii) ‘जग-जीवन’, ‘साँसों के तार’ तथा ‘स्नेह-सुरा’ में रूपक अलंकार है। यहाँ लक्षणा शब्द-शक्ति तथा माधुर्य गुण की छटा दर्शनीय है। भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण, विषयानुकूल, कोमल, सरस तथा मधुर लय से परिपूर्ण है। प्रस्तुत गीत पर फारसी के कवि उमर खय्याम का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
2. 'मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ;
हो जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।'
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि हरिवंशराय बच्चन की रचना ‘आत्मपरिचय’ से लिया गया है।
प्रसंग- कवि परस्पर विरोधी कथनों के द्वारा अपनी मनोभावनाओं से परिचित करा रहा है।
व्याख्या-कवि इसी कविता में कह चुका है कि वह किसी अज्ञात प्रिय की याद अपने हृदय में छिपाए जी रहा है। उस प्रियतम (परमेश्वर) के वियोग में व्याकुल कवि का हृदय जब रोता है, तो उसका वह रुदन कवि के गीतों के रूप में सबके सामने प्रकट हो जाता है। कवि के ये गीत सुनने में शीतल और मधुर होते हैं, किन्तु इनके भीतर उसकी विरह व्यथा भी अलग दहकती रहती है। कवि फिर भी अपने खंडहर जैसे जीवन से संतुष्ट है। वह अपने इस जीवन के सामने राजभवनों के सुखों को भी तुच्छ समझता है। वह प्रिय की स्मृतियों से जुड़े, भग्न-भवन जैसे जीवन को संतुष्ट भाव से जिए जा रहा है।
विशेष-
(i) कवि के रुदन में संगीत छिपा है। उसकी शीतल वाणी में आग छिपी है। वह अपने जीवनरूपी खंडहर के एक छोटे से भाग पर राजाओं के महल न्यौछावर कर सकता है। लगता है कवि का हृदय विरोधाभासों का निवास है।
(ii) अपनी कोमल और अति संवेदनशील भावनाएँ, कवि ने अपने सटीक शब्द-चयन से व्यक्त कर दी हैं।
(iii) भाषा सशक्त है। विरोधाभासी शैली मन को चकित करती है।
(iv) काव्यांश में विरोधाभास अलंकार है।
(v) छायावादी झलक काव्यांश में आकर्षण उत्पन्न कर रही है।
3.'मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ;
जग पूछ रहा उनको जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किए करता हूँ।'
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित कवि श्री हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित है। इसमें कवि ने आत्म-परिचय का बोध कराया है।
प्रसंग- कवि कहता है कि मैं तो अपनी मस्ती में डूबकर अपने मन का बखान करता हूँ, अपने मन की भावनाओं तथा संवेदनाओं को सुनाता रहता हूँ।
व्याख्या : कवि कहता है कि मैं प्रेम रूपी मदिरा को पीने वाला हूँ। मैं इसी प्रेम रूपी मदिरा को पीकर इसी की मस्ती में डूबा रहता हूँ। मैं केवल अपने में मग्न रहता हूँ। मैं कभी भी संसार का ध्यान नहीं करता। कवि कहता है कि यह संसार स्वार्थी है। यह केवल उसको पूछता है, जो इसका बखान करते हैं और उसके अनुकूल कार्य करते हैं। अपने प्रतिकूल कार्य करने वालों को यह संसार कभी नहीं पूछता। कवि कहता है कि मैं तो अपनी मस्ती में डूबकर अपने मन का बखान करता हूँ, अपने मन की भावनाओं तथा संवेदनाओं को सुनाता रहता हूँ।
4. 'तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया
जग के हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया
संदर्भ-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘बादल राग’ से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं।
प्रसंग- इसमें कवि ने बादल को विप्लव व क्रांति का प्रतीक मानकर उसका आहवान किया है।
व्याख्या- कवि बादल को संबोधित करते हुए कहता है कि हे क्रांतिदूत रूपी बादल! तुम आकाश में ऐसे मैंडराते रहते हो जैसे पवन रूपी सागर पर कोई नौका तैर रही हो। यह उसी प्रकार है जैसे अस्थिर सुख पर दुख की छाया मैंडराती रहती है। सुख हवा के समान चंचल है तथा अस्थायी है। बादल संसार के जले हुए हृदय पर निर्दयी प्रलयरूपी माया के रूप में हमेशा स्थित रहते हैं। बादलों की युद्धरूपी नौका में आम आदमी की इच्छाएँ भरी हुई रहती हैं। कवि कहता है कि हे बादल! तेरी भारी-भरकम गर्जना से धरती के गर्भ में सोए हुए अंकुर सजग हो जाते हैं अर्थात कमजोर व निष्क्रिय व्यक्ति भी संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं। हे विप्लव के बादल! ये अंकुर नए जीवन की आशा में सिर उठाकर तुझे ताक रहे हैं अर्थात शोषितों के मन में भी अपने उद्धार की आशाएँ फूट पड़ती हैं।विशेष-(i) बादल को क्रांतिदूत के रूप में चित्रित किया गया है।
(ii) प्रगतिवादी विचारधारा का प्रभाव है।
(iii) तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
(iv) काव्य की रचना मुक्त छंद में है।
(v) ‘समीर-सागर’, ‘दुख की छाया’ आदि में रूपक, ‘सजग सुप्त’ में अनुप्रास तथा काव्यांश में मानवीकरण अलंकार है।
(vi) वीर रस का प्रयोग है।
5. 'अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भवन सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।'
संदर्भ-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘बादल राग’ से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं।
प्रसंग- इसमें कवि ने बादल को विप्लव व क्रांति का प्रतीक मानकर उसका आहवान किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि पूँजीपतियों के ऊँचे-ऊँचे भवन मात्र भवन नहीं हैं अपितु ये गरीबों को आतंकित करने वाले भवन हैं। ये सदैव गरीबों का शोषण करते हैं। वर्षा से जो बाढ़ आती है, वह सदा कीचड़ से भरी धरती को ही डुबोती है। भयंकर जल-प्लावन सदैव कीचड़ पर ही होता है। यही जल जब कमल की पंखुड़ियों पर पड़ता है तो वह अधिक प्रसन्न हो उठता है। प्रलय से पूँजीपति वर्ग ही प्रभावित होता है। निम्न वर्ग में बच्चे कोमल शरीर के होते हैं तथा रोग व कष्ट की दशा में भी सदैव मुस्कराते रहते हैं।
विशेष-
(i) कवि ने पूँजीपतियों के विलासी जीवन पर कटाक्ष किया है।
(ii) प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग है।
(iii) तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली है।
(iv) पंक पर, अंगना-अंग, आतंक अंक में अनुप्रास अलंकार है।
(v) मुक्तक छंद है।
6. 'धूत कहौ, अवधूत कहो, रजपूतु कहो, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न बयाहब , काहूकि जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रूचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगी के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एक न दैबको दोऊ।'
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना ‘कवितावली’ से लिया गया है।
प्रसंग- कविता के इस भाग में तुलसीदास जी अपने बारे में बताते हुए कहते हैं मुझे किसी से न एक लेना है और ना किसी को दो देना है। यानि मुझे किसी से कुछ लेना-देना या मतलब नहीं हैं।
व्याख्या- कविता के इस भाग में तुलसीदास जी अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि तुम मुझे बुरा व्यक्ति (धूत) कहो या साधु (अवधूत) कहो , क्षत्रिय (राजपूत) कहो या जुलाहा (सूत काटने वाले मुस्लिम कारीगर) कहो यानि तुम मुझे जो चाहो कहो या समझो , मुझे उससे कुछ फर्क नही पड़ता हैं।तुलसीदास जी कहते हैं कि मुझे किसी की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं करनी हैं और न ही मुझे किसी से रिश्ता बनाकर उसकी जाति को बिगाड़ना है। तुलसीदास आगे कहते हैं कि ये तो जग – प्रसिद्ध हैं कि मैं श्रीराम का भक्त व एक संत हूँ और मेरी कोई जाति नही हैं। इसीलिए जिसे जो अच्छा लगे , वो कहे। मैं तो भिक्षा मांग कर खाता हूं और मंदिर में सोता हूं। मुझे किसी से न एक लेना है और ना किसी को दो देना है। यानि मुझे किसी से कुछ लेना-देना या मतलब नहीं हैं।
विशेष-
- यह काव्यांश सवैया छंद है।
- बेटीसों – बेटा में अनुप्रास अलंकार है। ।
- काव्यांश में ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग किया है।
- “लेना एक न देना दो” मुहावरे का प्रयोग हैं।
- “दारिद-दसानन” में रूपक अलंकार है।
- राम की भक्ति होने से “भक्ति रस” की प्रधानता है। साथ ही “शांत रस” का प्रयोग भी देखने को मिलता हैं।
7. 'जौं जनतेउँ बन बिछोह। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओह।।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस बिचारि जिय जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिन खग अति दीना। मनि बिन फनि करिबर कर हीना।।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौ जड दैव जिआवै मोही।।
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना ‘कवितावली’ से लिया गया है।
प्रसंग- श्रीराम कहते हैं कि हे भाई !! मैं अयोध्या कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा। सब लोग कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई गँवा (खो) दिया। अभी तो मैं इस संसार में सिर्फ पत्नी को खोने का कलंक सह रहा हूं।
व्याख्या- श्रीराम कहते हैं कि हे भाई !! मैं अयोध्या कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा। सब लोग कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई गँवा (खो) दिया। अभी तो मैं इस संसार में सिर्फ पत्नी को खोने का कलंक सह रहा हूं। लेकिन स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती हैं। श्रीराम आगे कहते हैं कि पुत्र , धन , स्त्री , घर और परिवार , ये सब इस संसार में बार-बार मिल सकते हैं। मगर इस संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिल सकता हैं । अपने हृदय में ऐसा विचार कर हे भाई ! तुम उठ जाओ। (श्रीराम को सगा भाई इसलिए दुबारा नही मिल सकता क्योंकि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी हैं।) श्रीराम कहते हैं कि जिस प्रकार पंख बिना पक्षी , मणि बिना सांप और सूँड बिना हाथी बहुत ही असहाय होते हैं। ठीक उसी तरह हे भाई !! मैं देवताओं की कृपा से जीवित तो रहूंगा मगर तुम्हारे बिना मेरा जीवन एक जिन्दा लाश की भांति ही होगा।
8.' छोटा मेरा खेत चौकोना
कागज का एक पन्ना
कोई अंधड कहीं से आया
क्षण का बीज वहाँ बोया गया।'
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘छोटा मेरा खेत’ से उद्धृत है। इसके रचयिता गुजराती कवि उमाशंकर जोशी हैं।
प्रसंग- इस अंश में कवि ने खेत के माध्यम से कवि-कर्म का सुंदर चित्रण किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि उसे कागज का पन्ना एक चौकोर खेत की तरह लगता है। उसके मन में कोई भावनात्मक आवेग उमड़ा और वह उसके खेत में विचार का बीज बोकर चला गया। यह विचार का बीज कल्पना के सभी सहायक पदार्थों को पी गया तथा इन पदार्थों से कवि का अहं समाप्त हो गया। जब कवि का अहं हो गया तो उससे सर्वजनहिताय रचना का उदय हुआ तथा शब्दों के अंकुर फूटने लगे। फिर उस रचना ने एक संपूर्ण रूप ले लिया। इसी तरह खेती में भी बीज विकसित होकर पौधे का रूप धारण कर लेता है तथा पत्तों व फूलों से लदकर झुक जाता है।
विशेष-
(i) कवि ने कल्पना के माध्यम से रचना-कर्म को व्यक्त किया है।
(ii) रूपक अलंकार है। कवि ने खेती व कविता की तुलना सूक्ष्म ढंग से की है।
(iii) ‘पल्लव-पुष्प’, ‘गल गया’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) खड़ी बोली में सुंदर अभिव्यक्ति है।
(v) दृश्य बिंब का सुंदर उदाहरण है।
(vi) प्रतीकात्मकता का समावेश है।
9. 'कल्पना के रसायनों को पी
बीज गल गया नि:शेष,
शब्द के अंकुर फूटे
-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘छोटा मेरा खेत’ से उद्धृत है। इसके रचयिता गुजराती कवि उमाशंकर जोशी हैं।
प्रसंग- इस अंश में कवि ने खेत के माध्यम से कवि-कर्म का सुंदर चित्रण किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि उसे कागज का पन्ना एक चौकोर खेत की तरह लगता है। उसके मन में कोई भावनात्मक आवेग उमड़ा और वह उसके खेत में विचार का बीज बोकर चला गया। यह विचार का बीज कल्पना के सभी सहायक पदार्थों को पी गया तथा इन पदार्थों से कवि का अहं समाप्त हो गया। जब कवि का अहं हो गया तो उससे सर्वजनहिताय रचना का उदय हुआ तथा शब्दों के अंकुर फूटने लगे। फिर उस रचना ने एक संपूर्ण रूप ले लिया। इसी तरह खेती में भी बीज विकसित होकर पौधे का रूप धारण कर लेता है तथा पत्तों व फूलों से लदकर झुक जाता है।
विशेष-(i) कवि ने कल्पना के माध्यम से रचना-कर्म को व्यक्त किया है।
(ii) रूपक अलंकार है। कवि ने खेती व कविता की तुलना सूक्ष्म ढंग से की है।
(iii) ‘पल्लव-पुष्प’, ‘गल गया’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) खड़ी बोली में सुंदर अभिव्यक्ति है।
(v) दृश्य बिंब का सुंदर उदाहरण है।
(vi) प्रतीकात्मकता का समावेश है।
10. 'जोर जबरदस्ती से
बात की चूडी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया।'
संदर्भ- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘बात सीधी थी पर’ से उद्धृत है। इसके रचयिता कुँवर नारायण जी हैं।
प्रसंग- जीवन में आने वाली हर मुश्किल का समाधान अगर हम धैर्य पूर्वक करें तो , वह मुश्किल आसानी से हल हो जाती है। लेकिन अगर हम जल्दबाजी व हड़बड़ाहट में उस मुश्किल को दूर करने की कोशिश करते हैं तो मुश्किल और बढ़ जाती है। यहां पर कवि भी यही बात कहते हैं।
व्याख्या- दो वस्तुओं को जोड़ने के लिए पेंच में चूड़ियों (खाँचे) का होना आवश्यक हैं ताकि वस्तुओं पर पेंच की पकड़ मजबूत हो सके। पेंच को अच्छी तरह से कसने के लिए उसे सीधी दिशा में धूमाना भी आवश्यक हैं क्योंकि गलत दिशा में धुमाने से पेंच कसने के बजाय खुलने लगेगा। और जबरदस्ती कसने की कोशिश करने पर पेंच की चूड़ियों खत्म हो जाएंगी या टूट जाएंगी । कविता के भावों को समझे बिना वह कविता में चमत्कारिक व बनावटी भाषा का प्रयोग करने लगा जिससे कविता बाहरी रूप से दिखने में सुंदर दिखने लगी थी। कवि के इन करतबों (यानि बनावटी भाषा का प्रयोग) को देख कर तमाशबीन भी उसकी झूठी तारीफ व वाह-वाही कर रहे थे। जिसे सुन कर कवि खुश भी हो रहा था। कवि आगे कहते हैं कि मुझे जिस बात का पहले से डर था , अंत में वही हुआ। बनावटी भाषा के प्रयोग से कविता के भाव स्पष्ट नहीं हुए और जोर जबरदस्ती बात को सुलझाने का प्रयास करने पर बात एकदम प्रभावहीन व उद्देश्यहीन हो गई और वह शब्दों का एक समूह मात्र बनकर रह गई।हालाँकि वह कविता ऊपर से तो ठीक-ठाक लग रही थी । लेकिन वह भावों को अभिव्यक्त करने में प्रभावहीन थी। असफल थी। उसे जिस उद्देश्य के लिए लिखा गया था , वह उस उद्देश्य को भी पूरा नहीं कर पा रही थी।
कवि परिचय
(03 अंक)
1. हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक परिचय निम्न लिखित बिन्दुओं के आधार पर
लिखिए
(क) कोई दो रचनाएँ (ख) भावपक्ष, कलापक्ष (ग) साहित्य में स्थान
रचनाएँ-
हरिवंश राय बच्चन की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं* काव्य-संग्रह- मधुशाला (1935), मधुबाला (1938), मधुकलश (1938), निशानिमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल-अंतर, मिलनयामिनी, सतरंगिणी, आरती और
अंगारे, नए-पुराने झरोखे, टूटी-फूटी कड़ियाँ। * आत्मकथा- क्या भूलें क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर,
दशद्वार से सोपान तक। * अनुवाद- हैमलेट, जनगीता, मैकबेथ। * डायरी- प्रवासी की डायरी।
भावपक्ष-
बच्चन हालावाद के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। दोनों महायुद्धों के बीच मध्यवर्ग के विक्षुब्ध विकल मन को बच्चन ने वाणी दी। उन्होंने छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की बजाय सीधी-सादी जीवंत भाषा और संवेदना से युक्त गेय शैली में अपनी बात कही। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन में घटी घटनाओं की सहजअनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से की है। यही विशेषता हिंदी काव्य-संसार में उनकी प्रसिद्ध का मूलाधार है।
कलापक्ष-
कवि ने अपनी अनुभूतियाँ सहज स्वाभाविक ढंग से कही हैं। इनकी भाषा आम व्यक्ति के निकट है। बच्चन का कवि-रूप सबसे विख्यात है उन्होंने । कहानी, नाटक, डायरी आदि के साथ बेहतरीन आत्मकथा भी लिखी है। इनकी रचनाएँ ईमानदार आत्मस्वीकृति और प्रांजल शैली के कारण आज भी पठनीय है।
साहित्य में स्थान-
बच्चन हालावाद के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। बच्चन का कवि-रूप सबसे विख्यात है उन्होंने ।इनकी रचनाएँ ईमानदार आत्मस्वीकृति और प्रांजल शैली के कारण आज भी पठनीय है।
2. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का साहित्यिक परिचय निम्न लिखित बिन्दुओं के आधार पर
लिखिए
(क) कोई दो रचनाएँ (ख) भावपक्ष, कलापक्ष (ग) साहित्य में स्थान
रचनाएँ -
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' प्रतिभा-संपन्न व प्रखर साहित्यकार थे। इन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं पर लेखनी चलाई। इनकी रचनाएँ हैं
(i) काव्य-संग्रह-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना आदि।
(ii) उपन्यास- अलका, अप्सरा, प्रभावती, निरुपमा, काले कारनामे आदि।
(iii) कहानी-संग्रह-लिली, सखी, चतुरी चमार, अपने घर।
(iv) निबंध- प्रबंध-पदय, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक आदि।
(v) नाटक- समाज, शंकुतला, उषा-अनिरुद्ध।
भावपक्ष-
निराला जी छायावाद के आधार स्तंभ थे। इनके काव्य में छायावाद, प्रगतिवाद तथा प्रयोगवादी काव्य की विशेषताएँ मिलती हैं। ये एक ओर कबीर की परंपरा से जुड़े हैं तो दूसरी ओर समकालीन कवियों की प्रेरणा के स्रोत भी हैं। इनका यह विस्तृत काव्य-संसार अपने भीतर संघर्ष और जीवन, क्रांति और निर्माण, ओज और माधुर्य, आशा-निराशा के द्वंद्व को कुछ इस तरह समेटे हुए है कि वह किसी सीमा में बँध नहीं पाता। उनका यह निर्बध और उदात्त काव्य
व्यक्तित्व कविता और जीवन में फ़र्क नहीं रखता। वे आपस में घुले-मिले हैं। उनकी कविता उल्लास-शोक, राग-विराग, उत्थान-पतन, अंधकार-प्रकाश का सजीव कोलाज है।
कलापक्ष-
निराला जी ने अपने काव्य में तत्सम शब्दावलीयुक्त खड़ी बोली का प्रयोग किया है। बँगला भाषा के प्रभाव के कारण इनकी भाषा में संगीतात्मकता और गेयता का गुण पाया जाता है। प्रगतिवाद की भाषा सरल, सहज तथा बोधगम्य है। इनकी भाषा में उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी के शब्द इस तरह प्रयुक्त हुए हैं मानो हिंदी के ही हों।
साहित्य में स्थान- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' कवि का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है इनकी रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
3. रघुवीर सहाय का साहित्यिक परिचय निम्न लिखित बिन्दुओं के आधार पर लिखिए
(क) कोई दो रचनाएँ (ख) भावपक्ष, कलापक्ष (ग) साहित्य में स्थान
रचनाएँ -
सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो-हँसो जल्दी हँसी, लोग भूल गए हैं आदि।
भावपक्ष-
रघुवीर सहाय ने अपने काव्य में आम आदमी की पीड़ा व्यक्त की है। ये साठोत्तरी काव्य-लेखन के सशक्त, प्रगतिशील व चेतना-संपन्न रचनाकार हैं। इन्होंने सड़क, चौराहा, दफ़्तर, अखबार, संसद, बस, रेल और बाजार की बेलौस भाषा में कविता लिखी। घर-मोहल्ले के चरित्रों पर कविता लिखकर उन्हें हमारी चेतना का स्थायी नागरिक बनाया। हत्या-लूटपाट, राजनीतिक भ्रष्टाचार और छल-छद्म इनकी कविता में उतरकर खोजी पत्रकारिता की सनसनीखेज रपटें नहीं रह जाते, वे आत्मान्वेषण के माध्यम बन जाते हैं। इन्होंने कविता को एक कहानीपन और नाटकीय वैभव दिया। रघुवीर सहाय ने बतौर पत्रकार और कवि घटनाओं में निहित विडंबना और त्रासदी को देखा। इन्होंने छोटे की महत्ता को स्वीकारा और उन लोगों व उनके अनुभवों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया जिन्हें समाज में हाशिए पर रखा जाता है। इन्होंने भारतीय समाज में ताकतवरों की बढ़ती हैसियत व सत्ता के खिलाफ़ भी साहित्य और पत्रकारिता के पाठकों का ध्यान खींचा।
कलापक्ष-
रघुवीर सहाय ने अधिकतर बातचीत की शैली में लिखा। ये अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से बचते रहे हैं। भयाक्रांत अनुभव की आवेग रहित अभिव्यक्ति भी इनकी कविता की अन्यतम विशेषता है। इन्होंने कविताओं में अत्यंत साधारण तथा अनायास-सी प्रतीत होने वाली शैली में समाज की दारुण विडंबनाओं को व्यक्त किया है। साथ ही अपने काव्य में सीधी, सरल और सधी भाषा का प्रयोग किया है।
साहित्य में स्थान-
रघुवीर सहाय कवि का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है इनकी रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
4. तुलसीदास का साहित्यिक परिचय निम्नलिखित के आधार पर लिखिए
(क) कोई दो रचनाएँ (ख) भावपक्ष, कलापक्ष (ग) साहित्य में स्थान
रचनाएँ-
गोस्वामी तुलसीदास की रचनाएँ निम्नलिखित हैंरामचरितमानस, कवितावली, रामलला नहछु, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, रामाज्ञा-प्रश्न, कृष्ण गीतावली, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, हनुमान बाहुक, वैराग्य संदीपनी। इनमें से 'रामचरितमानस' एक महाकाव्य है। ‘कवितावली' में रामकथा कवित्त व सवैया छंदों में रचित है। 'विनयपत्रिका' में स्तुति के गेय पद हैं।
भावपक्ष-
गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के सर्वोपरि कवि हैं। ये लोकमंगल की साधना के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यह तथ्य न सिर्फ उनकी काव्य-संवेदना की दृष्टि से, वरन काव्यभाषा के घटकों की दृष्टि से भी सत्य है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में सर्जन-क्षमता होने के बावजूद इन्होंने लोकभाषा (अवधी व ब्रजभाषा) को साहित्य की रचना का माध्यम बनाया। तुलसीदास में जीवन व जगत की व्यापक अनुभूति और मार्मिक प्रसंगों की अचूक समझ है। यह विशेषता उन्हें महाकवि बनाती है। 'रामचरितमानस' में प्रकृति व जीवन के विविध भावपूर्ण चित्र हैं, जिसके कारण यह हिंदी का अद्वतीय महाकाव्य बनकर उभरा है। इसकी लोकप्रियता का कारण लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है। इनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देशकाल के आदशों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र
कलापक्ष-
शैलीगोस्वामी तुलसीदास अपने समय में हिंदी-क्षेत्र में प्रचलित सारे भावात्मक तथा काव्यभाषायी तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें भाव-विचार, काव्यरूप, छंद तथा काव्यभाषा की बहुल समृद्ध मिलती है। ये अवधी तथा ब्रजभाषा की संस्कृति कथाओं में सीताराम और राधाकृष्ण की कथाओं को साधिकार अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। उपमा अलंकार के क्षेत्र में जो प्रयोग-वैशिष्ट्य कालिदास की पहचान है, वही पहचान सांगरूपक के क्षेत्र में तुलसीदास की है।
साहित्य में स्थान-
तुलसीदास कवि का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है इनकी रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।